मित्रों की पीड़ा

श्री हरी  ने जिसको  समझा
ऐसी पीड़ा  का उल्लेख  करता हूँ,
रो नहीं  सकता देख,  
वो दर्द  बयान करता  हूँ
मित्र की  पीड़ा देख  
यूँही खड़ा  रहता हूँ 


क्या करूँ  जब वो  रोता   है
पीठ थपथपाता  हूँ 
यूँही  खड़ा रहता  हूँ
राय लेता  है वो,  
अनुभव सम्पूर्ण  देता हूँ,
मित्र की  पीड़ा देख  
यूँही खड़ा  रहता हूँ 

जब संगिनी  उसकी 
हो विमुख, 
उमंग  देता हूँ
आँखें भरी  होती हैं  उसकी
सवाल  उठा देता  हूँ,
उत्तर कोई  मिलता नहीं,  
जगह देता  हूँ ,
मित्र की  पीड़ा देख  
यूँही खड़ा  रहता हूँ 

सब ठीक  हो उसके  साथ
जीवन  में मृत्यु योग  देख उसका,  
आँखें उड़ेल  देता हूँ,
आस बँधा  उसकी
ख़ुद  को झिला  लेता हूँ 
मित्र की  पीड़ा देख  
यूँही खड़ा  रहता हूँ 

वो चलता  है 
रुकता  नहीं जीवन  की दौड़  में ,
तो यूँही  थामे बाँहें  उसकी
कुछ  पल बिठा  लेता हूँ 
तर्क वितरक  से उसे ,  
उलझनों से  हटा लेता  हूँ
मित्र की  पीड़ा देख  
यूँही खड़ा  रहता हूँ 

रो नहीं  सकता देख,  
उसका दर्द  बयान करता  हूँ
मित्र की  पीड़ा देख  
यूँही खड़ा  रहता 

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