रोज़ सुबह उठ कर
दुआ यही करता हूँ
प्रभु के उस दर्शन से
कितनी हुई तकलीफ़ दूर
यही समीक्षा करता हूँ ।
तुम रोज़ उम्मीद की
लौ जगाती हो ,
अपनी परेशानी से
ख़ुद को उठाती हो,
देखता खड़ा हूँ मैं
कुछ कर नहीं पाता
सिर्फ़ ढाढ़स बँधा देता हूँ मैं
कितना लाचार सा हूँ
सब यूँही चलने देता हूँ मैं।
क्या करूँ तेरे लिए
मेरी ज़िंदगी तुझसे है ,
कैसे करूँ ये दरिया पार
तकलीफ़ खुदी से है ,
होती अगर शक्ति कोई
तो ले लेता दुखः तेरे सभी
देता मुस्कुराहटें कुंडली की सभी
कितना मजबूर हूँ
देख लेता हूँ मैं।
बैठा हूँ ये सोचता
आएगा एक दिन ऐसा
सोचेंगे मुस्कुराएँगे हम
बीत गए वो दिन
अहसास ऐसा जगाएँगे हम।
पर फिर एक आवाज़ होती है
जगाती है कहती है
उठ निकल सपने से तू
तेरी ज़िंदगी यहीं पास में
हुई बीमार सोती है ,
कहाँ जाएगा इस मंज़र को छोड़ कर
तेरी उम्र यूँही दराज़ होती है ।
हाथ जोड़े कहता पल्लव
ए प्रभु तुम कुछ तो करो
दो हमें कुछ पल ऐसे
रात यहीं समाप्त होती है ,
कितना लाचार हूँ मैं
ख़ुद से ही अब बेज़ार हूँ मैं
दिखता नहीं कोई किनारा मुझे
कोई माँझी भी नहीं
नैया मेरी यहीं डूबती दिखायी देती है ।
पर खड़ा हूँ
चिंता ना कर
लड़ जाऊँगा भले ही
मैं मेरी समाप्त होती है ,
तुझे ले चलूँगा उस पार
ज़िंदगी जहाँ नहीं उदास होती है ,
बदलेगा ये वक़्त भी
हम भी खड़े मुस्कुराएँगे
देखेंगे हम की दुनिया सलाम देती है ।