कब सत्य प्रत्यक्ष देखूँगा मैं

कहता गुरु

बहुत कर्मशील होना है तुम्हें,
कहता गुरु
बहुत धेर्य धरना है तुम्हें,
तब चलोगे तुम
तब बढ़ोगे तुम ,
तब हो अग्रसर
नेतृत्व सबका करोगे तुम,
यही सुन कर जीता हूँ मैं।

मैं बैठा यही सोचता हूँ ,
क्यों और कहाँ
जाना है मुझे,
गुरु के कचोटने से
क्यों बेचैन
रहता हूँ मैं।
इच्छा तो उस ज्ञान की है ,
इच्छा तो उस आयाम की है ,
जिसे पाने पर प्रत्यक्ष हूँ मैं,
जिसे पाने हेतु
रुकने को नियमित हूँ मैं।
क्यों इस कविता
के अंजाम की देखूँ,
क्यों अपने जीवन
की अातुर्ता देखूँ,
कुछ है नहीं जब हाथ में,
इसी तरह चलने को
मजबूर हूँ मैं।
सोचता यही रहता हूँ मैं,
परियों के लिए जीता हूँ मैं,
चलता बस यूँही रहता हूँ मैं,
इसी को गंतव्य जान
तत्पर हूँ मैं।
उस खुदा ने क्या तय किया,
क्यों जन्म हूँ मैं,
क्यों बस
इन परियों को सम्भालता
बस यूँही चलता हूँ मैं,
इसी उधेड़बुन में
बस रोज़
उठता हूँ मैं।
कब होगा साक्षात्कार,
कब खुलेंगे ज्ञान चक्षु ,
कब सत्य प्रत्यक्ष
देखूँगा मैं,
बस यही सोचता रोज़,
कवितायें
लिखता हूँ मैं।

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