जंगल में बैठ ठंडी साँस
ले रहा हूँ,
इस जंगल में
फिर जीवन का आनंद
ले रहा हूँ,
यहाँ फिर
एक इत्तफ़ाक़ हो रहा है,
जानवरों को देख कुछ सीखें
ऐसा विचार हो रहा है।
सादा जीवन
संयम प्यार और सद्भाव,
जीवन व्यापन नित्य
बन प्रकृति का
हिस्सा,
संजोये रखूँ
इस धरोहर को
यही उदेस्य हो रहा है।
जनता हूँ मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ,
बनाया उसने वो बुद्धिमान हूँ,
पर दुष्कर्म में लगा हुआ
कर रहा विनाश हूँ,
कहीं फोड़ता बम
कहीं काटता पेड़ हूँ,
मजबूरी इतनी समझता
की जा पहुँचा मंगल
ढूँढने एक नया संसार हूँ,
क्यों नहीं यहीं
संजो लेता
धरोहर
जहाँ दिया
उसने जीवन अपार,
मगर कैसे समझूँ
मैं तो नासमझ हूँ।
पर जाऊँगा मैं तो बनाने
फिर नया संसार,
क्योंकि उसने दिया मुझे
इतना अमूल्य उपहार
उसका उपयोग कर
मैं तो
ख़ुद लूँगा
उसका स्थान इस बार,
यही चाह लिए मैं
इस संसार से
करवाउँगा फिर
पलायन आठवीं बार,
और
अपनी इच्छा पूर्ति हेतु
ख़त्म होने दूँगा ये संसार,
परंतु
ना लगाउँगा पेड़
ना रोकूँगा लड़ाई,
ख़ुद तर जाऊँगा
और इस संसार की
अर्थी उठाऊँगा
फिर एक बार,
यही किया होगा
मेरे पूर्वजों ने
तभी हुए ७ मनु
ना समझा मैं तब
ना समझूँगा इस बार।
कहाँ था माँ ने
की
आदि भी वो है
अंत भी वो है
यही मिला उपदेश बारामबार,
बना त्रिशंकु फिर से
उड़ जाऊँगा
परस्पर इस बार,
मैं तो बस
चलूँगा
और बनाऊँगा
एक नया संसार।