वक़्त से रुसवा हो
ऐसे चले थे
कि बेपरवाह हो गए ,
उसने जाने अनजाने
याद रखा
और ख़ैरखवाह हो गए।
बेरुख़ी समझी हमने
परवरदेगार की
सन्यासी हो गए,
खरखवाहों में रह कर भी
बेमुराव्वत
लापरवाह हो गए।
कुछ जुनून तो है
नौजवान-ए-हिंद में
कर गुज़रने को,
ज़लज़ले से निकली लहरों में खड़े
बंदरगाह हो गए ।
फ़लसफ़े ज़िंदगी ने लिखे
बेइंतहा के
सरकार हो गए,
आए ना वो काम और
अपनो में घिरे
बेपरवाह हो गए।
मंज़िलें तय हो जाएँगी सन्यासी
बस उसकी चाह रख,
वक़्त आएगा
मय्यत में खड़े लोग
भी बेपरवाह हो गए।