उल्फ़तों में दोस्त यूँही
बदनाम हुए हैं,
अह्द-ए-उल्फ़त तो
चंद लमहों में सिमटा है,
रह-ए-उल्फ़त पे चलने
की गुज़ारिश की थी
लगा कर लगाम
हमारे लबों पर
मुस्कुरा कर चल दिए।
खोल दिए हमने जब
दर-ए-उल्फ़त
यारों को यारी याद आयी
देखा और चल दिए,
बहार-ए-उल्फ़त में
डूबे थे हम
यारों को आवाज़ लगाई
और पीछे चल दिए।
सर-ए-उल्फ़त इस क़दर
बरपाई थी
भागते हुए पीछे पीछे
यारों से आगे निकल गए,
अब ये आलम है
आवाज़ लगाते हैं यार हमें
हम ग़म-ए-उल्फ़त से
बेज़ार
आगे चल दिए ।