यायावर यात्री हैं हम तो, अहर्निश चहुं ओर घूमते|
रस्ते टेढ़े- मेढ़े पर चल,मग में हम भी कभी न रुकते|
लाभ-हानि के जन्म-मरण के, चक्रो से कैसे छुटकारा|
वादेकर रखे हैं हमने, हम ने पाले खुद हैं रगड़े|
शांत्त निशा है देर सबेरा ,कब होंगे प्रकाश के नवपल|
षडयंत्रों के बीच बैठकर खोजरहे अध्यात्म आत्मबल|
समय बीतता है प्रतिपल यूँ, निशा खोजती नया सबेरा|
हृदय ढूंढता एक सहारा, मन विश्वास जगाता प्रतिपल|
क्षणभन्गुर है जीवन अपना,कालचक्र निशदिन का डेरा|
त्रिविध गुणों से बने जीव को एक सत्य पाने का फेरा|
ज्ञानी जन आत्मा को चुनते जीव अनित्य माया का डेरा|
आत्मज्ञान पाने को व्याकुल चित्त विकार भरा तन मेरा |
By Sri Satish kumar