तुम भी ढूँढो

भटकते हैं लोग

करने सपने को साकार,
कोई बेचता ख़ुद को
कोई निकल पड़ता बेचने
खुदा का आकार,
अज्ञानतावश भूल मर्यादा 
और जड़ों को अपनी,
बस चल पड़ते हैं 
खोज में 
पता नहीं किसकी
ये इस प्रकार,
कर्म क्षेत्र बना 
घर से दूर
इंसान परिश्रम करें भरपूर,
पा जाते सम्पत्ति
उठते-बढ़ते महकते जैसे कपूर।
 
व्याकुलता स्पष्ट हो जाती 
जब खो देते हैं होश,
रोते बिलखते छुपा लेते हैं 
वो अपने अश्रु,
पूर्ण मन और जतन से 
उठाए घर-परिवार का भार
नहीं होता उन्हें संतोष
चलते जाते है बस
समझ समय का भार।
 
ब्रह्म-सत्य ये ज्ञात नहीं,
कहीं होता जन्म कहीं है मिलता ज्ञान,
चहूं ओर होता पलायन 
करने को सत्य की खोज,
युक्ति यही है प्रभु को सूझी 
खोज जगत में ब्रह्मज्ञान की 
कर सके इंसान।
अनभिज्ञ इस सत्य से 
है ये प्रभु का अभिमान,
मृत्यु लोक ये 
नश्वर सम्पूर्ण जगत 
इसीलिए फिर जुटा इंसान,
ढूँढने को नया घर
फिर करेगा पलायन
आठवीं बार।
 
फिर समुद्र मंथन होगा 
होगा अग्रसर है इंसान,
फिर जुटेंगे देवता और दानव
हो एक दूजे के समान,
कर्म शील हो बनायी नीती
बसाने मंगल पर इंसान
भेज है हमने मंगल यान।
 
कुछ करके सत्यापन 
ब्रह्म का 
संतुष्ट हो करते सबका सम्मान,
पर जो नहीं समझते
गंतव्य को अपने
वो होते विमूड़ 
करके दूसरों का अपमान,
जो ज्ञानी हैं 
वो समझते इस युक्ति का ज्ञान,
हैं जीवन में इंसान के 
दो अलग स्थान,
जहाँ पहुँचने और जहाँ पहुँचाने संतान को 
सौंपा है उस प्रभु ने काम।
 
फूटा अंकुर मेरे हृदय में यही 
पकड़ लेखनी लिखता चलूँ और 
भावना अपनी कर व्यक्त विचार,
हृदय शांत है, 
और मुख पर विराजमान मेरे मुस्कान,
जब होते सम्पूर्ण भाव कविता में 
मिलता एक अंजाम।
 
तुम भी ढूँढो क्या चाहते हो 
और करो प्रारम्भ 
कर्म कर उस कुरुक्षेत्र पर 
पाओ विजय अपार।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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