साथ-साथ

अनजान सा बैठा हुआ ,

बस आँखे नम ना थीं

रुआंसा सा चलता हुआ,

बस पैर थके ना थे,

थका हुआ सा

मंजिल को पाने की

वो मेरी ललक

कुछ अहसासों को संजोए हुए,

बस उम्मीद ना थी।

तुम्हे देख ढाढस बंधाता हुआ,

पाँव रुकते ना थे,

अमानव सा इकठ्ठा कर खुद को,

मंजिल मरीचिका ना थी

हाथ पकड़ मेरा

साथ जो हो मेरे,

तय हो जांऐगे ये रस्ते

दरख्तों की छांव मे

रेंगती मेरी परछाईं,

बस ये छाले दूर ना थे।

मुस्कुराहट मे घुली

उम्मीद की किरण,

हौसलों मे कमी ना थी

तुम्हारे हौसलों को नमन करता मै,

सहिष्णुता मे कमी ना थी,

साथ मिल

तय कर ली ये मंजिलें ,

मुसकुराहटों से

कर स्वागत वक्त का,

विशवाश मे तो कभी

कमी  ना थी।

Leave a Reply