ज्ञान चक्षु
खुल रहे निरन्तर
घ्यान धर
अग्रसर मै निरन्तर,
कष्ट हुए
जो मिथ्या थे
बाण सा खींच रहे
तुम मुझे परस्पर।
तुम धारक
तुम ही आधार हो मेरा,
कभी गांडीव हूँ
कभी सन्यासी सा अस्तित्व है मेरा,
मेरे सारथी बन
बने हो स्वयं सानिध्य मेरा।
कृपा अपार
संभावनाएं
द्रोणाचार्य सी खडी हों
सम्मानित हो मस्तक
ऊँची गर्दन खडी हो,
जीवन यापन ऐसे
सदैव तेरी अनुभूति हो।
।। ॐ नमो भगवते वासूदेवाय।।