गर्मी का मौसम है
या बरसात में नाचेगा मोर,
सर्दी का मौसम है
या पतझड़ की होगी भोर,
रेत सा निकल समय
सांझ के पहर में अटक रहा,
स्वयं को देखता तो
दुखद धारावाहिक सा जैसे चल रहा,
आँसुओं से भरा गागर
हर पल में जीवन जैसे छलक रहा,
किस मुख इबादत करूं उसकी
हर प्रयास मेरा, मेरी ओर ही मुड रहा,
हाथ थामा तो है उसने
प्रत्यक्षता ऐसी जैसे निवेदन नहीं वो सून रहा,
इस युग से पूर्व चला आता था
राक्षसों के उत्पात को, दूर से अब देख रहा,
चिडिया घोंसलो से निकल
उड़ने को तैयार पर, मौसम ठीक अभी नहीं हो रहा,
मुंह उठाए ताकता ऊपर
बादलों का जमघट गतिहीन सा प्रतीत हो रहा,
क्या करे कौन उठाएगा
भीगते घोंसले में परिवार तितर-बितर हो रहा,
शांत तो होना है तूफान
संसार बस उजड़ता सा प्रतीत हो रहा।
Bahut khoob