तेरे प्यार का
और तेरे दुलार का,
इस संसार में
और पर लोक में,
दया दृष्टि तेरी
हमारी तरफ वो मुस्कान तेरी,
जीवन खुशियों से भर देती
सभी दुख हर लेती,
तू हाथ अपना
सिर पर हमारे सदेव रखना,
ये लाड़ अपना
ऐसे ही बनाए रखना ,
ये प्यार अपना
हम पर यूँही लुटाए रखना,
माँ हो हमारी
रहें हम सदा तेरे अभारी।
हमने जब से होश सम्हाला तब से अबतक अनगिनत लोग जीवन में जुड़ते गए और भिन्न भिन्न रिश्ते बनते गए| आज भी वही क्रम जारी है | इंसान अपने संग जुड़े सभी लोगों की आकांक्षाओं एवं उम्मीदों को पूरा करने में पूरी जिंदगी समर्पित कर देता है मगर अंत तक कोई उससे खुश नहीं होता | सबकी आशा एवं उम्मीद निरंतर बढ़ती जाती है| परन्तु इन सभी रिश्तों में एक रिस्ता है जिसे हमसे कोई आशा और उम्मीद नहीं होती अगर होती भी होगी तो हमें नहीं मालुम वह रिस्ता है माँ का | संतान चाहे जैसा भी हो, वह वर्षों बाद भी मिलता है मगर माँ को उससे कोई शिकायत नहीं होती| संतान को देखते ही उसकी बूढी हड्डियों में मानो नयी ऊर्जा आ जाती है और दौड़ पड़ती है अपने संतान की सेवा में|
मैं खुश रहूँ बस यही शब्द
जुबाँ पर प्रत्येक रहता है,
माँ के फटे आँचल में भी
देने को प्रेम शेष रहता है,
जो भी है पास मेरे सब उसी का है,
मैं क्या दूँ कैसे उसे आभार व्यक्त करूँ
वह संतान ही क्या जिसे
इस भगवान् पर भी संदेह रहता है |