कहाँ है वो जगह
जहाँ सुकून-ए-जहाँ मिलते हैं
दिखाते सभी वो मंज़र,
जहाँ सभी मसरूफ मिलते है ।
हम भी निकले हैं
उस गुरु की खोज में
कहते हैं शरण में उसकी,
खुदा मिलते हैं ।
पहुँचा हूँ मैखाने में अभी,
ना समझना मुझे
शराबी
यहाँ दिल से निकले आँसूओं के,
हिसाब मिलते है ।
क्या बेरुखियों के चलते
कमस्कम
इतनी बरपी
जो तसरीफ लिए निकले,
बेज़ार मिलते हैं ।
बता दें
इन फ़िज़ाओं को भी,
हम आज
की वो यहाँ
कितने मजबूर मिलते हैं ।
बैठे रहेंगे नज़रें बिछाए,
इंतज़ार में उनकी
जानते हैं लौटने को वो,
बेताब मिलते हैं ।
कर देते इज़हारे इश्क़
वो हमसे तब ही
जहाँ बग़ीचे से लिए
गुलाब मिलते हैं ।
अब निकले हैं सन्यासी
तलाश में उनकी ऐसे
जैसे खुदा का ख़िदमतगार
मशाल लिए मिलते हैं ।