तुम्हारी ज़रा-नवाज़ी के क़ायल हुए ऐसे
जैसे बर्फ़ किसी मय में मिल पिघले ।
आए थे तेरे कूचे पर बेख़बर यूँ तो
जैसे खुदा की तलाश में जोगी चल निकले ।
थाम कर हाथ बैठा दिया मैखाने में यूँ
जैसे मय की तासीर को परख हल निकले।
एक शोख़ शमा इधर जलने को है और हम
परवाने हो जाएँ , ये शबब हर पल निकले ।
देख कर इस शमा की तन्हाई को करें उससे
चिराग़ों को अपने रोशन , अब घर निकलें।
पर बैठे हैं अब भी, हुए बर्फ़ इस क़दर हम
शमा बन कर सन्यासी भी जैसे जल निकले।