जीता रहा इंसान

Not my poetry.. Anonymous writer

उल्हजहनोँ मेँ उल्हज कर जीता रहा इंसान
जीने का सलीखा अंततक कभी सीखा नहीं
उम्रभर अंधेरों से ही सदाँ लड़ता रहा इंसान
जलता चिराग हाथ मेँ लेकर कभी चला नहीं

अकेला होगया है आदमीं ढूनियां की भीड मेँ
ऊजाला कभी करता नहीं खुद की ही नीड मेँ
उम्र भर वह सोचता यह दुनियाँ बदल जाये
सोचा नहीं मन में यह उठी दीवार गिर जाये

बीज लेकर हाथ मेँ लिये इंसान चलता ही रहा
खुद बीज को रोपा नहीं दुनियाँ से कहता रहा
रोपे बिना ही बीज से अंकुर नहीं निकला
उम्र सारी ढल गई समसान मेँ जाकर मिला

उम्रे दराज चार दिन की पा गया इंसान
खुद मेँ ही खुद खोकर खुद ही बना हैवान
इंसान का जीवन जगत मेँ बन गया दंगल
आँख को खोले बिना ही क्यो खोजता मंगल

तुफान संग पसाड आते रहे रुकते नहीं कभी
आवरोध ही अवरोध से रस्ते भरे सभी
रुकता नहीं है वक्त यह दुनियां चलायमान
संसार की सारी खुशी खुद मेँ ही विद्यमान

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