एक अछूता कवितामय प्रयोग🙏

अचानक आ कर मुझसे,
इ ठलाता हुआ पंछी बोला

ईश्वर ने मानव को तो-
उत्तम ज्ञान-दान से तौला

ऊपर हो तुम सब जीवों में-
ऋषितुल्य अनमोल,
एक अकेली जात अनोखी

ऐसी क्या मजबूरी तुमको-
तरस गयी होंठों पे शोख़ी!

और सताकर कमज़ोरों को,
अंग तुम्हारा खिल जाता है;
अहः तुम्हें मिल जाता है

कहो मैंने- कि कहो,
आज सम्पूर्ण गर्व से कि- हर अभाव में भी,
घ र तुम्हारा बड़े मजे से,
च ल रहा है।

छोटी सी- टहनी के सिरे कीजगह में
बिना किसी झगड़े के, ना ही किसी टकराव के पूरा कुनबा पल रहा है

ठौर यहीं है उसका
डाली-डाली,पत्ते मे
ढलता सूरज देता तरावट
मानवता को घट-घट में

थकावट सारी पूरे दिवस की
तारों की छईंया से
फुर से हर लेता है।

ना दान-नियति से अनजान बनो
अरे!प्रगतिशील श्रीमानो
फ़रेब के पुतले बन बैठे हो! हे मेरे समर्थवानो।

भला याद कहाँ है तुम्हे,
असल मनुष्यता का का नजराना ?

यह जो थी, प्रभु की
अनुपम रचना
लालच-लोभ के
वशिभूत होकर,
श र्म-धर्म सब तज धारा।

षड्यंत्रों के खेतों में,
सदा पाप-बीजों को बोकर।
हो कर स्वयं से दूर-
क्षणभंगुर सुख में अटक चुके हो

त्रा स को आमंत्रित करके
ज्ञान-पथ से भटक चुके हो।
इठलाता हुआ पंछी बोला

ई श्वर ने मानव को तो
उत्तम ज्ञान-दान से तौला।
ऊपर हो तुम सब जीवों में-
ऋषितुल्य अनमोल,

एक अकेली जात अनोखी
ऐ सी क्या मजबूरी तुमको-

छोड रहे होंठों की शोख़ी!
सता-सता कमज़ोरों को,

अंग तुम्हारा कयों खिल जाता,
अहम् की जोत जगाने में ।

कहें ॠषि प्रभातम
क ख ग आज सम्पूर्ण,
गर्व करो कि- हर अभाव में भी,
घर तुम्हारा बड़े मजे से चलता है

छोटी सी टहनी के सिरे की
जगह में,
बिना किसीझ गड़े के,*
ना ही किसी टकराव के,
पूरा कुनबा पल जाता है ।

ठौर यहीं है उसमें,
डा ली-डाली, पत्ते-पत्ते में
ढलता सूरज-
तरावट देता
उतारे थकावट सारे दिन की

तारों की अठखेलियों से
धन-धान्य की लिखावट लेता है

ना दान-नियति से अनजान बनो,
अरे प्रगतिशील मानव,
फ़रेब के पुतले
बन बैठे हो
समर्थवान इनसानो

भ ला याद कहाँ तुम्हे,
मनुष्यता का मर्म ?
कयोंकि यह थी,
प्रभु की इच्छा कि
इन्सान बना अनुपम

ला लच-लोभ के
वशिभूत होकर,
शर्म-धर्म सब तजकर
षड्यंत्रों के खेतों में,
सदा पाप-बीजों को बोकर

हो कर स्वयं से दूर,
क्षणभंगुर सुख में अटक चुके हो

त्रास को आमंत्रित करके,
ज्ञान-पथ से भटक चुके हो🦚

 

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