क्रोधित, आवेशित गांधारी
गिर पड़ी धरा पर श्रापित कर,
अधचेतन, बिलख रही भू पर
वह विगत काल को शोषित कर |
थे कृष्ण सुन रहे श्राप- शब्द
हँस रहे मृदुल, मन ही मन में,
आ गए तुरत कुरुक्षेत्र मध्य
हत योद्धाओं के कानन में |
बोले गांधारी को हाथ जोड़
माते ! मैं श्राप ये लेता हूँ,
पर वंश नष्ट होता है क्यों
उसके कुछ कारण देता हूं |
गांधारी ! हो गया शोक बहुत
उठ जाओ, करो चिंतन मन में,
किसके कारण यह युद्ध हुआ
मंथन कर लो विश्लेषण में |
कौरव विनाश का कारण तुम
तुम स्वयं बनी थीं, नेत्रहीन,
पर ज्ञान – चक्षु, चिन्ताधारा
को क्यों रखा दृष्टि-विहीन |
गांधारी, हे ! वह द्यूत-खेल
का कपट किया था क्या मैंने ?
अपने भाई का वह चक्र-तंत्र
क्यों रोका नहीं कभी तुमने ?
माते! अभिशाप तुम्हारा मैं
करता हूँ ग्रहण, पर यह सुन लो,
जिन पुत्रों से निर्वंश हुयी तुम
भद्रे ! उनके दुर्गुण गिन लो |
वह दुरात्मा, ईर्ष्यालु-प्रकृति
अतिशय अभिमानी, दुष्कर्मी,
कामी, क्रोधी, एक शत्रु-मूर्ति
था पुत्र तुम्हारा, एक विधर्मी |
ऐसे दुर्योधन के तुमने क्यों
अपराध नहीं संज्ञान लिए,
क्यों उसको अग्रगामी करके
सिंहासन के लोलुप्त्व दिए |
क्यों दीन, विदीर्ण हुयी हो तुम
क्यों सती-शक्ति धूमिल करके,
क्या बन पाओगी फिर पुत्रवती
तुम मुझको यों शापित करके |
मैं सर्वविज्ञ, मालूम मुझे
कालान्तर में यह ही होगा,
मैंने ही लिखा सबका ललाट
कुछ भी करलो, जो लिखा, होगा |
मैं कालजयी, मैं प्रबुद्ध काल
यह सृष्टि समायी है मुझमें,
पर मुझे चाहिए कारण भी
मरने का, मर्त्य के कानन में |
मैं काल-चक्र, मैं कृष्ण गहन
मैं छिद्र-अनंत, अँधेरे का,
मैं रक्त-पिपासा काली की
मैं लोहित क्षितिज, सवेरे का |
मैं रथारूढ़, मैं संहारक
मैं हूँ एक आण्विक विस्फोरण,
मैं शून्य विराजित, बहुरूपी
हर दिशा मेरी, मैं वृहत कोण |
मैं मानव बन कर आया हूँ
मानव की हर नीति चली,
पर पुत्र तुम्हारे विष के वृक्ष
उनको मृत्यु ही लगी भली |
तुम कहती हो, मैंने बोया
कौरव के ध्वंस का प्रथम बीज,
पर तुम हो इसकी रूपकार
धृतराष्ट्र हैं इसके रक्तबीज |
वह पुत्र मोह तुम दोनों का
सिंहासन के प्रति लोलुपता,
ले गया मृत्यु की ओर शुभे !
अन्याय – उदर, अभिलाषिणता |
हे क्षत्रिये! नया नहीं तुमने,
अभिशापित कर कुछ बोला है,
जो अपने लिए लिखा मैंने
तुमने रहस्य वह खोला है |
वैष्णव वंशों का यादव-कुल
होगा दैविक कारण विनष्ट,
हे शुभे ! यही उनका भविष्य
होंगे विचार उनके भी भ्रष्ट |
जिनके विचार भी भ्रष्ट हुए
वे जीवित हों पर, मृत ही हुए,
तुम शोक करो मत, गांधारी !
कौरव मेरे धाम विगत ही हुए |
— प्राणेन्द्र नाथ मिश्र
Jay shree krishna