मै मै नहीं परन्तु मै मै ही हूं।

महाकाल की चेतना

और महाकाली कि शक्ति,

नारायण सा तेज

और लक्ष्मी सी शीतलता,

देवों को प्यारे और गणों में दुलारे,

सूंड जिनकी सिर्फ सूंड नहीं

स्वयं सभी चक्रों का निवास वहीं,

मेरे सिर में सहरार से शुरू हो

अंत मूलाधार तक विस्तार होता,

उस सूंड की ऐसी गरिमा,

शरीर स्वयं सुव्यवस्थित हुआ है जैसे,

गजानंद का प्रभाव ऐसा

सानिध्य मिले और निवास हो हृदय में,

परमानंद की भी तब क्यों आस तकूं

परम आत्मा जब स्वयं हो मुझमें,

कृष्ण से नटखट,

राधा से प्यारे,

महाकाली से गुस्सैल,

महाकाल से शांत,

बोलता रहूं बस ,क्या गुण गान करूं मै,

इनका नाम जपुं या हरी नाम कहूं मै,

सब एक सा प्रतीत होता,

वह परम आत्मा मुझे

अब स्वयं में ही आभास होता,

अब मै मै नहीं,

संसार सब मिथ्या है,

जो हो रहा वो बदलता है,

जैसे मै चाहूं वैसे ही होता है।

और क्या कहूं

अब मै बावला भी हूं

रोते है सब जब शांत होता हूं,

मै ही शांत और मतवाला भी हूं।

किसी दुविधा में अब फंसता नहीं,

घटित हुई घटना से व्यथित नहीं,

जीवन का क्या मूल्य,

ये तो यूंही बीत जाता है,

मेरे भाव श्री गणेश में समर्पित

शरीर स्थिर हुआ जाता है।

गणेश भी स्वयं मै और

नारायण भी मै हूं,

अंत भी मै और

आने वाला आरंभ भी मै हूं।

मेरा ब्रह्मांड मै स्वयं रचता

उसके पात्र भी स्वयं ही चुनता हूं,

किसी को क्यों इल्ज़ाम दूं,

मै स्वयं ही रचता और स्वयं ही रचना हूं।

तुम आंखें बंद करो तो

तुमहारा इष्ट भी मै हूं,

महाकाल और महाकाली का तांडव भी मै

मै मै नहीं परन्तु मै मै ही हूं।।

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